संदर्भ: खेती बाड़ी
समय: सांय :४:००
दिनांक: २५ सेप्टेम्बर २०१०
जाहिर है, तब खेत-खलिहान भी पूंजीपतियों के नियंत्रण में चले जायेंगे। जरूरी नहीं कि वे उन खेतों में अनाज ही उपजायें। वे उस जमीन पर फैक्टरियां भी लगा सकते हैं। जो खेती होगी भी, वह पूंजीवादी प्रणाली में ढली होगी। तब खाद्य पदार्थों की कीमतों का अपने बजट के साथ तालमेल बिठा पाना शहरी मध्य व निम्न वर्ग के बूते की बात नहीं रहेगी।
गांव के जो लोग शहर में जाकर रहेंगे, खासकर पुरानी पीढ़ी के लोग, खुद उनके लिए भी शहरी जीवन से सामंजस्य बिठा पाना उतना आसान नहीं होगा। कष्ट सहकर भी कृषि में मर्यादा देखनेवाला किसान शहर में मजदूर बनकर कभी खुश नहीं रहेगा।
सवाल यह भी उठता है कि देश के 70 - 80 करोड़ ग्रामीणों को बसाने लायक शहरों को बनायेगा कौन? जो राजनैतिक नेतृत्व आजादी के छह दशकों बाद भी ग्रामीणों को स्वच्छ पेयजल तक मुहैया नहीं करा सका, वह एक-दो दशकों में उनके लिए सुविधाओं से संपन्न चमचमाता शहर बना देगा? फिर, इसके लिए पैसा कहां से आयेगा? यदि यह जिम्मेवारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने की सोच है, तो क्या जरूरत थी देश की आजादी की? ईस्ट इंडिया कंपनी हमारा 'भरण-पोषण' कर ही रही थी।
दुनिया की दूसरी सबसे विशाल आबादी पूरी की पूरी शहरों में रहने लगेगी, तो पर्यावरण प्रदूषण के खतरे भयावह हो जायेंगे। वर्तमान में मौजूद शहरों व कस्बों का प्लास्टिक कचरा आस-पास की जमीन को बंजर बना रहा है। शहरों के पड़ोस में स्थित नदियां गंदा नाला बनती जा रही हैं। अभी यह हाल है, तो 600 या 6000 नये शहर अस्तित्व में आयेंगे तब क्या होगा?
शहरीकरण के समर्थकों का तर्क रहता है कि दूर-दूर बिखरे गांवों की बनिस्बत शहरों को बिजली, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, सुरक्षा आदि की सुविधाएं देने में आसानी होगी। तो क्या आप देश के गैर शहरी क्षेत्रों को इन सुविधाओं से वंचित कर देंगे? क्या उन इलाकों को एक बार फिर आदिम युग में ढकेल दिया जायेगा?
दरअसल, भारत के गांवों को शहर बनाने की बात बाजार की ताकतों के दबाव में की जा रही है। आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में औद्योगिक प्रगति की रफ्तार तेज हुई है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सक्रियता भी बढ़ी है। उन कंपनियों को अपना माल खपाने के लिए बाजार चाहिए। लेकिन आत्मनिर्भर गांवों की सोच इस बाजारवाद के विस्तार में बाधक है। भारत की ग्रामीण आबादी जब शहरों में रहने लगेगी तो वह अपनी छोटी मोटी जरूरतों के लिए भी बाजार की बाट जोहने को विवश होगी। शहरी भारत ग्रामीण भारत की तुलना में बेहतर उपभोक्ता साबित होगा

प्रिये नवीन .. आँखें तो उनकी खोली जाए जिनकी बंद हो, जो खुली आँखों के होते हुए भी अंधेपन का स्वांग रचते हैं..उनका क्या ..? आज हर तरफ विदेशी उत्पादों की होड़ लगी है, और हर आम-ओ-खास विदेशी उत्पादों से प्रभावित है और तो और.. हर बार नए ब्रांड, तथा नए मोडल की होड़ में लाखों करोड़ों रुपये की आहुति दी जाती है...ऐसे में स्वदेशी की बातें...नक्कार खाने की तुति की तरह लगती है..फिर भी जब इस प्रकार की बातें सामने आती हैं..तो मन को बड़ा संतोष मिलता है. काश आज हर व्यक्ति इस बात की गहराई को समझ पाता...फिर भी एक आस है मन में की शायद वोह सुबह कभी तो आएगी...!!!
प्रिये नवीन, शायद मेरा व्याख्यान आपको पसंद नहीं आया | कोई बात नहीं, दरअसल मेरा इरादा किसी व्यक्ति विशेष के दिल को ठेस पहुँचाना नहीं था | मैंने सिर्फ एक आम धारणा व्यक्त की थी परन्तु यह तो आप भी मानते हैं की जाने अनजाने आप एक विदेशी कंपनी मैं कार्यरत हैं और यह आपकी कोई बुराई नहीं है अपितु आपके द्वारा सच को स्वीकार करना भी अपने आप में एक बड़ी बात है, कितने ऐसे लोग हैं जो सच को इस बेबाकी से स्वीकार करने का दम रखते है..शायद गिने-चुने.मई यह कहना चाहता हूँ की किसी विदेशी कंपनी में कार्य कर के कोई व्यक्ति अपराध नहीं करता क्यूंकि आम आदमी के पास और जरिया ही क्या है अपने परिवार के भरण पोषण के लिए, सरकार के पास आम आदमी के लिए नौकरियां हैं ही नहीं.. निजीकरण के नाम पर जो भी देशी-विदेशी कंपनियां भारत में स्थापित हुई हैं..उन में से किसी न किसी में तो नौकरी करनी ही पड़ेगी..वर्ना परिवार भूखा मर जायेगा..और ऐसे हालत में आदर्शों से काम नहीं चलता..रोटी की भूख तो रोटी से ही मिटेगी न..और रोटी पाने के लिए काम करना पड़ता है ..जो की ऐसी ही किसी संस्थान में मिल सकता है..